अंतर्द्वंद Antradvand By Dr. Sachidanand Kaveeshvar

             अंतर्द्वंद

सुबह के घने कोहरे में, दूर – बहुत दूर
मेरी मंज़िल
एक धुंधली परछाई  की तरह
नज़र आ रही थी।
छत पर चढकर देखा ​तो ​
एक ​रौशन ​इमारत नज़र आई
लगा यही मंज़िल है
मैं वहां पहुंचने के लिये बहुत आतुर था
शाम की कालिख छाने से पहले
मैने तेज़ रफ़्तार वाले ​सीमेंट के रास्ते पर
सफर करने की ठानी ​ ​
चमकीले दिए और किनारे पर लगे
नियॉन के संदेशों की जगमगाहट से मैं पुलकित था।
दाएं बाएं से सनसनाती कारें गुज़र रही थी।
तीव्र गति से अब मंज़िल का फासला
कम होता जा रहा था।
मगर तभी
सामने की कारों के ब्रेक लाइट्स चमकने लगे।
एकाएक यातायात ठप्प हो गया।
मैं ​उस ​चौड़ी सड़क के बीच रूका रहा असहाय​,​
सैकड़ों यात्रिओं से घिरा।
सीमेंट की सड़कों और नियॉन के दियों का
कुतूहल अब कम होने लगा था।
 अब कच्चे रास्ते पर जा रही बैल गाड़ी,
मिट्टी पर गिरि बारिश और किनारे पर लगी
​अम्रराई की सुगंध याद आने लगी।

गाय भैसों की गर्दन में टंगे ​
घुंगरू की आवाज़ याद आने लगी।

शाम होने में अब कुछ ही देर बाकी है।
शायद मैं और पगडंडी पर जा रही बैलगाड़ी
साथ ही पहुंचेंगे – उसी मंज़िल पर
शाम की कालिख छाने से पहले।
…………”डॉक्टर सच्चिदानंद कवीश्वर”
Source: Rajan Sachdeva

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